कर्मों के फल से कौन बच सका है ?

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कर्म का फल – श्रद्धालुओं आज हम एक कहानी के माध्यम से जानेंगे की हमारे वर्तमान जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में कैसे प्राप्त होता है । – astikjagat

पाप के कर्मों से कौन बच सका है ?
पाप के कर्मों से कौन बच सका है ?

कौशांबी के राजा विजय प्रताप और उनकी महारानी सुनंदा का जीवन बड़े ही ऐशो आराम से गुजर रहा था। उनकी कई संतानें थीं और वे सभी स्वस्थ और सुंदर थीं, पर इस बार महारानी सुनंदा की कोख से एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जो एक अंगविहीन मांसपिंड था। राजा और रानी बहुत उदास और दुःखी हुए। घर के सभी लोग उस अंगविहीन बालक को देख बहुत दुःखी रहने लगे। उस बालक को देखकर सुनंदा रात-दिन आँसू बहाती रहती। राज उसे समझाने का प्रयास करते, पर रानी पर इसका कोर्ड असर न होता था। एक दिन राजा ने कहा- “सुनंदा यह अंगविहीन बालक तेरी कोख से पैदा हुआ है और यह हमारा पुत्र है। यह कैसा भी हो, हमें इसे अपना पुत्र तो मानना ही होगा और हमें इसका समुचित पालन-पोषण भी करना होगा।”उस बालक का नाम मकराक्ष रखा गया और उसे राजमहल के एक एकांत कमरे में छिपाकर रखा गया, जिससे बाहर के लोग उसे देख न सकें, क्योंकि उसे देखकर लोग राजा-रानी के साथ-साथ उस बालक का उपहास करते। इस बालक के बारे में हम लोगों के अलावा किसी अन्य को कोई जानकारी नहीं होनी चाहिए ऐसा राजा ने सुनंदा से कहा। इस प्रकार राजा व रानी अपने भाग्य को कोसते हुए उस बालक का राजमहल के अंदर ही पालन-पोषण करने लगे। उसे राजमहल से बाहर कभी भी नहीं लाया जाता था। संयोग से प्रव्रज्या करते हुए एक दिन तीर्थंकर भगवान महावीर उसी नगर में पधारे। उसी नगर में उनके सत्संग की व्यवस्था की गई। हजारों लोग वहाँ सत्संग सुनने आए। उनका दर्शन लाभ करने आए। महावीर के आगमन की जानकारी एक वृद्ध को भी मिली, जो दृष्टिहीन थे, उनकी भी इच्छा महावीर के सत्संग में जाने को हुई। वे सदा अपने भाग्य को कोसा करते कि मेरे किसी बुरे कर्म, अशुभ कर्म, पाप कर्म के कारण ही मैं अंधा हूँ। उनके शरीर में भीकई गहरे जख्म थे, जिनकी पीड़ा से वे बार-बार कराह उठते थे। आग्रह करने पर एक युवक ने उन्हें महावीर के सत्संग तक पहुंचा दिया। ये एक ऊँचे टीले पर बैठे थे। महावीर का सत्संग चल रहा था। वे महावीर को नहीं देख सकते थे, पर वे सोच रहे थे कि महावीर तो मुझे अवश्य ही देख सकते हैं और उनकी पावन दृष्टि जब मुझ पर पड़ेगी तो निश्चित ही मेरे पाप मिटेंगे और उनके सत्संग के सात्विक वातावरण से मेरा चित्त पवित्र हो सकेगा। इस अंधे व पीड़ा से कराहते व्यक्ति की करुण मौन पुकार अंतर्यामी महावीर तक पहुँच रही थी और वे बीच-बीच में उस पर अपनों करुणामयी दृष्टि भी डाल रहे थे। भगवान महावीर अपने प्रवचन में कह रहे थे- “इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने संचित कमों के कारण ही संसार में चक्कर लगाते हैं। जीवन-मरण के चक्रव्यूह में फँसते हैं। अपने किए अच्छे-बुरे, शुभअशुभ, पुण्यकर्मों के कारण ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। अपने किए हुए कर्मों का फल हर प्राणी को भोगना हो पड़ता है। जिस तरह तुंबी पर मिट्टी की तहें जमाने से वह भारी हो जाती है और डूबने लगती है, उसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार तथा मूर्च्छा, मोह से युक्त कर्म करने से आत्मा पर कर्मरूपी मिट्टी की तहें जम जाती हैं और वह भारी बनकर अधोगति को प्राप्त हो जाती है।

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इसके विपरीत यदि तुंबी के ऊपर की मिट्टी की तहें हटा दी जाएँ तो वह हलको होने के कारण पानी पर आ जाती है और तैरने लगती है। वैसे ही यह आत्मा भी जब कर्मबंधनों से मुक्त हो जाती है, तब वह ऊपर की गति प्राप्त करके लोकाय भाग पर पहुँच जाती है और वहाँ स्थिर हो जाती है।”इधर भगवान महावीर का प्रवचन चल रहा था और उधर उनके पास बैठे उनके शिष्य गौतम स्वामी बार-बार टीले पर बैठे उस अंधे वृद्ध को ही देख रहे थे। महावीर स्वामी को आश्चर्य हुआ कि मेरी तरफ एकटक देखने वाला गौतम आज बार-बार मुड़‌कर क्या देख रहा है? जब सत्संग पूरा हुआ तब भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से पूछा-“वत्स। आज सत्संग के समय तुमने ऐसा क्या देखा, जिससे तुम्हारा मन सत्संग में नहीं लगा।” गौतम स्वामी ने कहा-” भगवन्। आज मैं सत्संग में आए उस वृद्ध व्यक्ति को देख रहा था, जो न सिर्फ दृष्टिहीन था, वरन अपने शरीर के जख्मों, घावों की पीड़ा से कराह रहा था। वह कितना अभागा और दुःखी प्राणी है। भगवन् क्या उससे भी अधिक कोई दुःखी हो सकता है?” महावीर बोले- “वत्स। उस अंधे का तो कुछ पुण्य भी है। आँखों के सिवाय उसके शरीर के अन्य अंग तो ठीक हैं और यह तो चल-फिर भी सकता है, पर राजा विजय प्रताप का बालक मकराक्ष तो बिना हाथ-पैर के मांस के पिंड जैसा है। वह राजघराने में ऐशोआराम की वस्तुओं के बीच पल रहा है, फिर भी वह घोर दुःख में है, पर इस बात को केवल राजा-रानी ही जानते हैं।” गौतम स्वामी ने पूछा-“भगवन् । यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं राजमहल में जाकर उसे देख आऊँ?” भगवान महावीर ने अनुमति दे दी और गौतम स्वामी राजमहल की ओर चल दिए। वे राजमहल पहुँचे। उन्हें देखकर राजा  रानी दोनों आश्चर्यचकित थे और सोच रहे थे कि अभी  भिक्षा का समय नहीं है और इनके हाथ में भिक्षा का पात्र भी नहीं है, फिर भी महावीर स्वामी के यह शिष्य हमारे राजमहल में इस समय क्यों आए हैं? राजा ने उनकी आवभगत की और उनसे कहा-“आपके आगमन से आज हमारा राजमहल पवित्र हो गया है। कहिए हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? हमें आज्ञा दीजिए।” गौतम स्वामी ने पूछा “राजन्। क्या आपके राजमहल में किसी ऐसे जीव का पालन-पोषण हो रहा है, जो अंगविहीन मांसपिंड जैसा है?” यह सुनकर राजा-रानी दोनों आश्चर्यचकित हुए, क्योंकि यह बात राजमहल में बाहर किसी को पता ही न थी। राजा ने पूछा- “इसकी जानकारी आपको कैसे मिली ?” गौतम स्वामी बोले-“राजन् । मुझे यह मेरे गुरु ने बताया है और मैं उनके आदेश से ही यहाँ आपके पुत्र मकराक्ष को देखने आया हूँ।” राजा उन्हें उस एकांत कमरे में ले गए, जहाँ मकराक्ष को रखा जाता था। अंगविहीन मकराक्ष वहाँ सचमुच लेटा हुआ दारुण पीड़ा से कराह रहा था। गौतम स्वामी यह सब देखकर चकित रह गए। राजमहल से वापस आकर उन्होंन महावीर से पूछा-” भगवन्। उस अभागे जीव ने भला ऐसा कौन-सा कर्म किया होगा, जो राजमहल में जन्म लेकर भी दारुण दुःख झेल रहा है।”महावीर बोले-” वत्स। यह सब जीव के द्वारा किए गए कर्मों का ही खेल है। मकराक्ष अपने पूर्वजन्म में इसी क्षेत्र के सुकर्णपुर नगर का स्वामी था और उसके अधीन अन्य पाँच सौ ग्राम भी थे। पूर्वजन्म में उसका नाम इक्काई था। वह अनित्य संसार को नित्य मानकर जीवन जीता था। वह लूट-मार, व्यभिचार, अपहरण आदि चुरे कर्मों में ही निरत रहता था। वह अपनी प्रजा पर घोर अत्याचार कर उसे काफी दुःख देता था। वह साधु-संतों का अपमान और सत्संग का निरादर करता था। “पूर्वजन्म के इन बुरे कर्मों के कारण ही वह अंगविहीन मांसपिंड के रूप में जन्मा है और राजमहल में जन्म लेने के बावजूद राजसी सुखों से वंचित है और दारुण दुःख झेल रहा है। इसलिए ए जौव जीव को अपने कर्मों के प्रति सदैव सावधान रहना चाहिए और शुभ व पुण्यकर्मों में निरत रहना चाहिए। जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है।”

।।हरि शरणं।।

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